23 जून, 2015

जयप्रकाश मानस



अन्न-पूजा
जिकां सूं खेत नीं जोतीजै
जिकां सूं बीज नीं बोईजै
जिकां सूं रातीजोगा नीं करीजै
जिकां सूं खेत ऊभ’र उदासी नीं देखीजै
बां री थाळियां रै असवाड़ै-पसवाड़ै
जे महकै अन्न
तो आ बां री चुकता करी रकम रै परताप नीं
फगत आ किरपा है बां री
जिका अन्न नै पूजै।
००००

सगळा सूं चोखी परजा
जिकां राजा री पालकी साथै
कोनी दौड़ै
जिकां राजा री मोजड़ी रा गीत
कोनी गावै
जिकां राजा रै रुख नै देख’र
मूंडै री भाषा कोनी बदळै
जिकी राजा रै जस खातर
साव धोळा फूठरा-पूठरा सबद कोनी बपरावै

चोखी प्रजा हुवै बा, पण
चोखी परजा जलमै-
बिरादरी री चोखै दिनां खातर
चोखी परजा मर जावै-
बिरादरी री चोखै दिनां खातर

सगळा सूं चोखी परजा हुवै घणी कोझी
राज रै राजपत्र मांय
परजा पण हुवै-
चोखी राजा।
००००

आपां रा घर
अपां रै घरां मांय
जित्तो पसरियोड़ो है गांव
उण सूं बेसी पसरग्यो है शहर
जित्ता है ठंडै पाणी रा घड़ा, उण सूं बेसी तिरस
जित्ता है जाळी-झरोखा, भींतां उण सूं कित्ती ई बेसी
जित्ता मांयनै उण सूं बेसी बारै आपां
जित्ता डरियोड़ा हां आपां, आपां रै घरां मांय
उण सूं बेसी जापतैसर है आपां घर
आपां रै सुपनां मांय !
००००

सबद
खुद रै अंधारै मांय पड़ियो हो छानैमानै
मिनख पूग्यो उण पाखती
जागग्यो बो
जाणै हुयग्यो सिनान, मिनख रो रोसणी सूं
फगत इत्तो ई नीं
नहावण कर लियो आखी दुनिया उण रोसणी मांय
ऐकदम नवी चीज- खुद रो नांव काढीजण सूं
संस्कारित हुयग्यो आखो जगत
जियां टाबर रै जलमण माथै
नाचण लागै कोई बरसां सूं बांझ घर-परिवार।
००००

भार
धरती रो वैभव
आभै री ऊंचाई
सूरज री चमक
का फेर
चांद री चांदणी
आखो मिनखपणो
सगळो रो सगळो पुन्न
आखी पिरथवी पलड़ै मांय
भलाई धर देवो ताकड़ी-तोलणियां
डीगै कोनी सूवो
तिल जित्तो ई’ज
किणी राख दियो है
छानै सूं रत्ती भर प्रेम
दूजै पालणै मांय।
००००

तीरथ-जातरा
फगत एकर
गयो हो म्हैं
सगळा सूं सीधै-सरल मिनख रै घरै
सगळा सूं आंटा-टेढा मारगां सूं
गिरतो-पड़तो
अर फेर पाछो कदैई कोनी बावड़ियो
सगळा सूं बेसी हुसियार अर चंट लोगां आळी
खुद री बस्ती मांय।
००००

बच्योड़ा रैसी सगळा सूं चोखा
जायां पछै ई
बच्योड़ा रैसी चोखा मिनख
बां रै पांती री दुनिया सूं
लोककथावां री अखूट दुनिया रै
राजकंवरां दांई।

घणा चोखा मिनख रैसी बच्योड़ा
बां रै पांती री दुनिया सूं
जायां पछै ई
बायरो-पाणी अर अगन दांई
खुद री दुनिया रै, आसैपासै री दुनिया मांय

सगळा सूं चोखा मिनख रैसी बच्योड़ा
बां रै पांती री दुनिया सूं
जायां पछै ई
खुसबू दांई
आखी दुनिया ऊपर छात
बणावतै गुलाब रै फूलां दांई
खुसबू जीवै बायरै-पाणी अर अगन मांय।
००००
अनुवाद- नीरज दइया
====================
कवि परिचै : जयप्रकाश रथ ‘मानस’ रो जलम 02 अक्टूबर, 1965 नै छत्तीसगढ़ रै रायगढ़ मांय हुयो। आप एम.ए. (भाषा विज्ञान), एम.एससी. (आई.टी.) भणियोड़ा अर तीन भाषावां- छत्तीसगढ़ी, हिन्दी, उड़िया मांय लेखन करै। बाल साहित्य, लोक साहित्य, संपादन-अनुवाद, शिक्षा-साक्षरता अर अंतरजाळ-जगत आद पेटै ई आप घणो काम करियो। केई सम्मान अर पुरस्कारां सूं आदरिज्या मानस देस-विदेस मांय केई महतावूं आयोजनां पेटै ई जाणीजै। चावी पोथ्यां- तभी होती है सुबह, होना ही चाहिए आँगन, अबोले के विरुद्ध, साहित्य की सदाशयता, विविध कवि की उपस्थिति, दोपहर में गाँव, छत्तीसगढ़ की लोक कथायें (10 भाग)
ईमेल- rathjayprakash@gmail.com
====================
 
 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें