07 दिसंबर, 2010

हरीश करमचंदाणी

मा सूं अळधो
दुख-दरद मांय घणी ओळूं आवै मा री
ओ पण कोनी कै मा पाखती रैयां
दुख-दरद खूट जावै का हुय जावै कीं कम
उण रै दुखां मांय रळ जावै दुख मा रा ई
बध जावै गिणती दुखां री
पण ठाह नीं क्यूं चावै बो
उण पाखती ईज हुवै तद मा
दुख-दरद मांय घणी ओळूं आवै मा री ।
***

जीसा कैयो हो…
जीसा कैयो हो
सदीव सांच बोलजै
म्हैं कदैई नीं बोल्यो कूड़

जीसा कैयो हो
सदीव ईमानदार रैवजै
म्हैं नीं करी कोई बैमानी

जीसा कैयो हो
न्याव भेळै रैवजै
म्हैं अन्याव रो पल्लो कदैई कोनी भेंटियो

जीसा कैयो हो
सदीव सोरो-सुखी रैवजै
जीसा री सगळी बातां मानणी कांई सोरी है ?
***

मुगती जिण रो धरम
हाथां मांय भर परी
बंद कर देवो रेत नै
फिसळती रैवैला रेत
छळी दांई
मुट्ठी सूं …

कांई कदैई
कैद हुय सकैला
रेत ।
***

जूना बेली
एक दिन सगळा होवांला
पाछा भेळा
अर चितारांला
भेळा जीयोड़ा जूना दिन
एड़ो हुवैला पक्कायत
कदैई आवैला जोरदार रोवणो
तो कदैई गूंजैला
भींतां धूजावण वाळा ठाहका
अर तद ओ
स्सौ कीं
हुय जावैला
किणी एक ओळूं दांई
अर मांय जागैला जबरी भूख
तद कोई थाळी माथै झप्पटैला कोनी
नीं हुवैला धक्का-मुक्की
पैली दांई
चुपचाप भलै मिनखां रो रूप बणा
पैली थे पैली थे रो कराला बरताव
तद कांई धूड़ आवैला
बो मजो !
***
अनुसिरजण : नीरज दइया


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सिंधी कवि : हरीश करमचंदनी  ; जलम: 15 जुलाई, 1954
काव्य संग्रै तहिं हून्दे ब...(सिन्धी कविता-संग्रै) पिता बोले थे, समय कैसा भी है (हिन्दी कविता-संग्रै) केन्द्रीय साहित्य अकादमी अर राजस्थान सिन्धी अकादमी रा सदस्य ।     
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