साची वो कमती नीं हो
जिण सूं उखड़ी ही नींद ;
ना ई’ज ओ कमती है-
कै उखड़ियोड़ी नींद
सुपनो नीं बणाय सकै ।
अंधारै मांय
का रोसणी चास’र
जिको लखाव है
साची वो ई’ज कमती नीं है ।
पण नींद वा कांई नींद
जिकी घड़ नीं सकै सुपनां !
भासा वा कैड़ी भासा
जिकी कथ नीं सकै-
देखो !
***
सड़क माथै
कांई बा जोध-जवान थाकगी है
उण डोकरी रो हाथ पकड़िया-पकड़िया ?
का उण नै आवै है लाज जवानी में
बुढापै रै साथै ?
उमर रो हाथ पकड़ियां
कांई बा चालती ई’ज जावैला !
***
अटकळ
स्सौ कीं
छेकड़ खूट जावैला अटकळां मांय
थूं बायरै रै बैवण रो
मकसद नीं जाण सकै
अर ना ई’ज
चाणचकै उदास हुवण रो
कोई फूल
सदीव सागी सागी रंग ई क्यूं ओढै ?
रगत
एकदम धोळो क्यूं नीं हुय जावै ?
रगत
एकदम धोळो…
रगत…
***
भव-भूति
मिनख हुवैला तो डील
हुवैला, तो
रंग हुवैला
दाय करूंला मन-पसंद ।
मिनख हुवैला तो हुवैला मन
पसंद
ना-पसंद ।
मिनख हुवैला तो भलै ई हुवैला
मिनख ।
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अनुसिरजण : नीरज दइया
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हिंदी कवि : गिरधर राठी ; जलम : 1 अगस्त, 1944
कविता संग्रै : बाहर भीतर, उनींदे की लोरी, निमित्त, अंत के संशय
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कवि श्री गिरधर राठी सूं म्हारी ओळखाण बरसां पैली भाई नवनीत पाण्डे रै घरै बां रै कविता-संग्रै “बाहर भीतर” बांच्यां हुई, पछै “उनींदे की लोरी” बांच्यां बै म्हारी पसंद रा ठावा कवि बणग्या । जद राठी जी “समकालीन भरतीय साहित्य” रा संपादक बण्या तो बां सूं कागदां रै मारफत बंतळ हुवती रैयी । बिंयां तो “समकालीन भरतीय साहित्य” रै अंकां मांय राजस्थानी नै ठौड़ बगत-बगत माथै मिलती रैयी ही, पण राजस्थानी रा कमती ई कवि-लेखक छपता हा । राठी जी रै संपादन मांय राजस्थानी नै एकठ छपण रो संजोग सध्यो । जोधपुर मांय कवि कथाकार मीठेस निरमोही रै संयोजन मांय राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति रै कथा-समारोह मांय हिंदी कविता जातरा मांय आपरी ठावी ठौड़ राखणिया कवि आलोचक श्री गिरधर राठी सूं पैली बार परतख मिलण रो संजोग बण्यो । बठै आप सूं समकालीन भारतीय साहित्य अर खुद राठी जी रै सिरजण बाबत बंतळ हुई । बिंयां तो हिंदी कविता मांय केई कवि पसंद रा है, अनुसिरजण पेटै आपां बां कवियां री कवितावां नै राजस्थानी मांय बांची नै आगै ई बांचाला । ऐ कवितावां "जागती जोत" मांय संपादक श्री भगवती लाल व्यास प्रकासित ई करी ही ।
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