22 मई, 2011

राधावल्लभ त्रिपाठी



राजमारग माथै
निकळ्‌यो है राजा रो रथ
घड़घड़ाट करतो सरपट राजमारग माथै
होस-बेहोस न्हासता घोड़ा चींथता धरती नै
किणी मूरती-सा रूपाळा साव सीधा
ताण्या है कान आभै कानी सीधा
फरूकै भोडकी लारला झींटा
खुद रै खुरां सूं उडावतां धूड़
पकड़ नीं सकै बां नै
करै हवा सूं होड़ घोड़ा
बिना काण-कसर रै न्हास रैया है घोड़ा
जाणै धूजै धरती खुरां री चोट सूं
पण उठै संगीत दांईं एकठ एक सुर-
टंकोरां री टणटणाट रो
रथ रै चक्कां री ठकठकाट रो
अर खुरा री टपटपाट रो
मारग छोड़ लोग-बाग परै हटै
हड़कंप जितरै वेग सूं आगै
चितबांगो हुयग्यो है-
राजमारग माथै रमतो एक टाबर
भागग्या उण रा सगड़गी सायना
उण नै चिंथणआळा ई है घोड़ा
ठीक ऐनटैम दौड़ती-भागती आई 
उणा री मा हाल-बेहाल हुयोड़ी
उठा लेवै एकाएक रथ री सीध सूं
जाणै नानकियै नै खोस लियो
जावै परो रथ हड़हड़ाट करतो
मारग नै चींथतो
अबै रैयगी बाकी रथ जावण री खबर
रथ रो मारग अर टाबर दोवूं 
धक्‌-धक्‌ करतै काळजै चिपग्या है मा रै ।
***
जीवण-रूंख
चोखो रैवै जे एक’र भांव ई’ज तुरत
मिटियामेट हुय जावै ओ संसार
झड़ जावै सूखा अळसीज्या पानड़ा
सगळा रा सगळा एकै साथै ।

म्हैं ऐकलो ई जी लेवूंला
मसाणां मांय ऊभै किणी ठूंठ दांईं
साव नंग-घड़ंग, डाळ्‌यां बायरो
लगायां कामनावां री भभूति ।
कोई हरजो कोनी जे नीं आवै
दारू रा कुरला करण नै
मदछक्योड़ी बेलड़ी म्हारै माथै
कोई हरजो कोनी
घूंघरूवां री छमछमाट साथै
किणी कोमल कंवारी कन्या रो रूप
नीं हुयो जे म्हारै साथै
म्हैं बळीतै रै काळै कोयलो-सो
अनाम चाइजतो-अणचाइजतो
कपाळी दांईं ऊभो रैवूलां अठै रो अठै
कोई हरजो कोनी सा ।

म्हैं नीं चावूं तिल-तिल मरणो 
होळै-होळै खिरतो-खिरतो खूट जावणो
खुद रै सगळा पतां रो, फूलां रो
म्हैं फगत एक बार मांय
अगन रो झळ मांय झिल जावूं 
भसम होय परो ई म्हैं
खूट किंयां सकूं
म्हारी ऊंड़ी जड़ा तो धरा मांय है
म्हैं दूसर रचूंला नूंवीं कूंपळा
फूलां रा गुच्छा नै म्हारो रंग-बिरंगो रूपाळो संसार ।

खुद रै गिनायती नै मसाणां अगन देय’र
पाछा घिरता लोग-बाग
घड़ी’क बिसांई लेवै म्हारी छींया मांय,
देखै अचरज सूं नूंवा ऊजळा पानड़ा ।
जे इत्तो ई अरथ हुवै म्हारै हुवण रो
तो मालका ! घणो ई’ज है ।
***
जोकर
राज रै महलां भीड़-भाड़ रै हो-हुड़दंग मांय
ऐकलो, उफत्योड़ो, उदास अर आखतो हुयोड़ो है जोकर
सगळा हंसै. कोनी हंसै तो बस बो ऐकलो
राजा नै ई अबै फुरसत कठै उणां खातर
अळधै किणी बरामदै मांय ऐकलो
उणा नै उडीकै है जोकर ।

बै आवै, जावै होठां माथै पाछो नांव बांध्या
राज महलां री रौनक
राज-परिवार मांय लगोलग उठ-बैठ
साव ठालो बैठो-बैठो देखै जोकर ।

सौविदल्ल मल्ल राजनीति रो चक्को झाल्यां
घूमै है दौड़-भाग करै चेट, भाट, किरात, नट, विट
आं सगळा सूं अळधो बस साव गूंगो बण’र
देखै चारूंमेर जोकर ।
घेर्‌या रैवै राजा नै बंदी, मागध, पीठमर्द, चारण
तिरै कानाबाती ई कानां सूं दूजां रै कानां तांईं
सिरकै गोड़ै-घड़ी बात
अंतरपट मांय घीसीजै वर्षवरां रै साथै
कैय जावै अनमोल वचन
वेदां रा जाणीकार मराज
करै सुणण रो नाटकियो बदमास राजा ।
अलायदा छोड़-छाड़’र पूजा-पाठ रा पड़पंच
रास-रंग रै बागीचै किणी चकारियै मांय
मोटी सिलाड़ी पाखती बैठो रैवै अठीनै जोकर ।

अबै बो लगैटगै बिसराय दीनी
लुळती बातां, हास्य कथावां अर
बै सगळी आडी-ढेड़ी ओळ्‌यां ।

राजा खुद तो मांय रो मांय
डरै है जोकर सूं
कै स्यात लोगां सामीं जाय’र
ओ खरी-खरी खळकाय सकै है 
अर रास-रंग रै बागीचै बारै मारग बगता
लोग-बाग उण नै देखता विचारै 
कै देखो स्यात अबै
खरी-खरी खळकावैला बो ।
***



अनुसिरजण : नीरज दइया


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संस्कृत कवि : राधावल्लभ त्रिपाठी  जलम 15 फ़रवरी, 1949 राजगढ़ (मध्यप्रदेश)
कविता संगै :  सन्धानम (1989); लहरीदशकम (1991); गीतधीवरम (1996) तथा सम्पलवः (2000) अर "सन्धानम" । "सन्धानम" कविता-संग्रह माथै 1994 रो साहित्य अकादमी पुरस्कार। बिरला फ़ाउंडेशन रो शंकर पुरस्कार अर बीजा केई मान सम्मान पुरस्कारां सूं सम्मानित । आजकाळै आप राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान मांय वीसी रै पद माथै बिजारै ।
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