30 दिसंबर, 2010

सुनील गंगोपाध्याय

फगत कविता खातर
फगत कविता खातर आ जूण, फगत कविता खातर
कीं खेल-तमासा, फगत कविता खातर मझ सियाळै री सिंझ्यां
जमी-आभो डाकर एकलो म्हारो आवणो, फगत कविता खातर
टकटकी बांध्यै रूपाळै मौन रो एक पळको,
फगत कविता खातर लुगाई, फगत
कविता खातर इत्तो खून-खराबो, बादळां मांय गंगा रो झरणो
फगत मिनख खातर अर घणा दिनां तांई जीवण री लालसा लियां
मिनखां रो इत्तो दुखदाई जीवण, फगत
कविता खातर म्हैं अमरत्व नै फूंतरो गिण्यो ।
***

लंबी कविता री पाण्डुलिपि
इण धरती भेळै रळियोड़ी है एक बीजी धरती
रिंधरोही भेळै बरोबर जुड़ियोड़ी है रिंधरोही
दोफारां री सूनवाड़ मांय दूजो एक सूनवाड़
म्हनै अचरज हुवै
कदैई कदैई तो घणो अचरज हुवै
प्रीत रै उणियारै नै लपेटियां है एक दूजी प्रीत
गैरी सांस रै पाड़ौस मांय है एक घणी गैरी सांस
किणी सिंझ्यां नदी रै कांठै अकलो बैठूं जद
लहरां मांय छींटी-छींटी हुय जावै रगतवरणो ओ आभो
तद एक दूजी नदी रै पाड़ौस मांय
अणगिणती लहरां रो राजा बण नै
एकलो एक मिनख रो बैठणो-
एकलो एक मिनख बण देखूं
पाणी रै मायाजाळ मांय कै एकलो कोनी
है सगळा दुखां री ठारी म्हारै बिछाणा मांय
एक अर बीजो दुख
सगळा तिसळना मारगां रै सिरांथै भटकणो
बिसरा दियो है एक गुगळो दीसण वाळो मारग
म्हनै अचरज हुवै
कदैई कदैई तो घणो अचरज हुवै
***


इणी ढाळै
आपां रा है अचरजगारा दुख
आपां रै जीवण मांय है केई कड़वी खुसियां
महीनै मांय एक-दो बार है आपां रो मरणो
आपां लोग थोड़ाक मर परा पाछा जी जावां
आपां लोग अगोचर प्रीत खातर कंगाल हुय
सामीं आयोड़ी प्रीत नै ठुकरा देवां
आपां सावळ चालता चालता फालतू ई
मोल लेय लेवां दुखां मांय रळियोड़ो सुख,
आपां लोग धरती नै छोड़ जावां परा दसवीं मंजिल माथै
पछै धरती खातर तड़फा तोड़ा
आपां लोग सामीं मंडियां पीसां दांत पण आगलै ई खण
दिखा मुळकता उणियारां रा होकड़ा लियां
मात खायोड़ै मिनखां खातर आपां गैरी सांस छोड़ नै
रोजीना ऐड़ै लोगां रो आंकड़ो भळै बधा लेवां
आपां जागण रै नांव माथै सूवां अर
जागता रैवां सुपनां मांय
आपां हारता हारता बच्या हां अर जीत्योड़ै नै फटकारां
हरेक खण लागै कै इण ढाळै नीं, इण ढाळै नीं
कीं भळै जीवणो है किणी दूजै ढाळै
फेर ई इणी ढाळै अखूट नदी दांई
हांडता-हांडता आगै सरकतो रैवै जीवण … !!
***

लुगाई कै घासफूल
मन री पीड़वां रो रंग बिलू है का बादामी
नदी रै कांठै आज खिल्या है घासफूल
पीळा अर धोळा
कांई उणा पाखती ई है आपां जैड़ो हियो
का है सुपनां रो रूपाळो संसार
एक दिन इण नदी रै कांठै पूग
हरख सूं होवूं ऊजळो
अर फेर कदैई अठै आवूं तो होवूं साव दुखी
मोवणो मूंडो हेठो कर पूछूं -
घासफूल, कांई थे लुगायां दांई हो
दुख देवणा
थे ई तो हो आगार अणथाग आणंद रा ।
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अनुसिरजण : नीरज दइया


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बंगाली कवि : सुनील गंगोपाध्याय जलम : 7 सितम्बर1934
कविता संग्रै : केई कविता संग्रह छप्योड़ा । नील लोहितसनातन पाठक,नील उपाध्याय आद केई-केई नांवां सूं लेखन । लगटगै 200 पोथ्यां प्रकासित । प्रसिद्ध कविता-पत्रिका ‘कृत्तिवास’ रा सम्पादक । साहित्य अकादेमी मांय पांच बरस उपाध्यक्ष रैयां पछै 20 फरवरी2008 सूं अध्यक्ष पद रो काम संभाळै ।
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