03 मार्च, 2015

अशोक कुमार पांडेय


सगळा सूं कोझा दिन
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सगळा सूं कोझा दिन कोनी हा बै
जद घर रै नांव माथै
चौकी ही एक छव बाई च्यार री
घणी अबखाई सूं मावता हा जिण में दोय डील
पण मन चातक-सो उड़तो हो बैरोक-टोक।

कोझा कोनी बै दिन ई
जद जरूरतां कर दियो हो इतरो मजबूर
कै लटपटा जावती ही जीभ बारंबार
अर बै ई कोनी
जद भायला भेळै चाय में
दूध री जागा रळियोड़ो हुवती ही मजबूरियां।

हरगिज कोझा कोनी हा बै दिन
जद कोनी ही दरवाजे माथै कोई नेमप्लेट
अर नेमप्लेट आळा सगळा दरवाजा
बंद हा आपां खातर।

इत्ता कोझा तो खैर कोनी हा बै ई दिन
सगळा समझोता अर मजबूरियां रै छतां
आय जावती ही सात-आठ घंटां री गैरी नींद
अर नींद में बै ई अजीब-अजीब सुपनां
दिनूगै अखबार बांच’र अबै ई झुंझळ आवै
अर फाइलां माथै टीप लिख’र थाकल कलम
अब ई उमाव में लिखै कविता।

कोझा हुवैला बै दिन
जे रैवणो पड़ैला सुविधावां रै रिंधरोही में साव एकलो
भायला रा उणियारा हुयग्या साव गिरायका सरीखा
नेमप्लेट रै आतंक में लुकग्यो है म्हारो नांव
नींद सुपनां री ठौड़ गुलाम हुयगी गोळियां री
अर कविता सलटायोड़ी फाइलां री टीपां री।

कोझा दिन हुवैला बै
जद रात रो उणियारो हुवैला एकदम डील जैड़ो
अर उम्मीद रो चैकबुक सरीखो
भरोसो हुवैला किणी बहुराष्ट्रीय कंपनी रो विग्यापन
खुसी घर र कोई नुवो सामान
अर समझोता मजबूरी नीं बण जासी आदत।

पण सगळा सूं कोझिया हुवैला बै दिन
जद आवण लागसी आं दिनां रा सुपनां!
०००००

वैश्विक-गांव रा पंच परमेस
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पैलो
कीं कोनी खरीदै
ना कीं बेचै
कीं बणावणो तो अळगी बात
बिगाड़ण खातर ई कीं सऊर कोनी बीं में
पण स्सो तै बो ई करै
कै कांई बणैला, कित्तो बणैला अर कद बणैला
खरीदसी कुण, अर कुण बेचसी।

दूजो
कीं कोनी बांचै
ना कीं लिखै
इम्तियान अर डिग्रियां री तो खैर छोड़ो
पोथ्यां सूं कदैई कोनी रैयो उण रो वास्तो
पण स्सो तै बो ई करै
कै कुण पढसी, कांई पढसी अर कियां पढसी
पास कुण हुवैला अर कुण फेल।

तीजो
कीं कोनी रम्मै
जरा’क खाथो चाल जावै
तो बध जावै ब्लडप्रैसर
धूड़ै रो ई जापतो राखणो पड़ै उण नै
पण स्सो तै बो ई करै
कै कुण रम्मसी, कांई रम्मसी अर कद रम्मसी
जीतैला कुण अर कुण हारैला।

चौथो
किणी सूं कोनी लड़ै
खरी बात साव घास-फूस खावणियो
बंदूक रो ट्रिगर दबावणो तो अळधी बात
गुलेल तांई चलावण मांय थरथर कांपै
पण स्सो तै बो ई करै
कै कुण लड़ैला, किण सूं लड़ैला अर कद लड़ैला
मारसी कुण अर कुण मरसी।

अर
पांचवो
फगत च्यारूं रा नांव छांटै।
०००००



अजकाळै
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अजकाळै
कठै कीं कर सकूं
कीं पण सावळ सूं
जुलस में हुवूं
तद किणी जूनै भायलै दांई
मगरां मुक्को मार
मस्ती निकळ जावै कविता।
कविता रचण रै बगत
किणी कांयस करतै पाड़ौसी दांई
जोर सूं रोळा करण ढूकै
अखबारा री कतरनां
डूबूं जद अखबार में
तो किणी मुंडै लाग्योड़ी बैनड़ दांई
टीखळ करण ढूकै कहाणी
कहाणियां रै बिचाळै सूं
खुद रो ई कोई पात्र
खींच’र लेय जावै जुलस में
अजकाळै
कठै कीं कर सकूं
कीं पण सावळ सूं....
अनुसिरजण : नीरज दइया

कवि परिचै : कवि अशोक कुमार पांडेय रो जलम 24 जनवरी 1975 नै सुग्गीचौरी (मऊ) उत्तर प्रदेश में हुयो। आप कविता रै अलावा आलोचना, अनुवाद अर वैचारिक निबंध मांय ई सांवठी ठौड़ राखै। प्रकाशित पोथ्यां : लगभग अनामंत्रित, प्रलय में लय जितना, शोषण के अभयारण्य - भूमंडलीकरण के दुष्प्रभाव और विकल्प का सवाल, मार्क्स : जीवन और विचार, कार्ल मार्क्स और उनकी विचारधारा आद। ई-मेल - ashokk34@gmail.com
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आभार : दैनिक युगपक्ष बीकानेर —
 

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